सही पूछें तो इसे कहतें हैं Corporate Culture of Health services.......और क्यों न हो। यहां की कार्यनीति डॉक्टरों के दिल कम, और व्यवसायियों के ज़हन ज्यादा बनाते हैं। डॉक्टर तो यहां मात्र एक बेबस मुलाज़िम है, जिसको भावनाएं व्यक्त करने ही नहीं दी जातीं !

धन्य है वे छोटे निजी अस्पताल जहां आज भी अपणायत के आधार पर इलाज़ हुआ करता है; जहां मरीज की वेदना दिल से समझी जाती है और कभी विरले ही किसी मरीज की 'आह' जग जाहिर होती है। कारण, इन छोटे निजी अस्पतालों में मरीज का उनके मालिकों से सीधा संपर्क होता है, और लिहाज में उनके बिल में भी कटौती हो जाया करती है। अतः सभी राजी रहते हैं.......... यहां के मरीज़ यदाकदा ही असंतुष्ट होते हैं और उनका कोई वीडियो विरले ही वायरल होता है।

यूं कहा जा सकता है कि ये छोटे अस्पताल आम जनता के 'अपने' अस्पताल हैं।

लेकिन अब विभिन्न branded Corporate Hospitals मैदान में आ गए हैं......जो मरीज़ों को मात्र एक Profit making tool की तरह ही देखते हैं। उनके ऐसे इश्तेहार, जो 'एक के साथ एक फ्री' सरीके की घोर व्यवसायिक छिपी मानसिकता को दर्शाते हैं, ने मरीज़ों को अधिक असंतुष्ट और शंकामय बना के रख छोड़ा है। अमूमन ऐसे कॉर्पोरेट अस्पतालों में उनके 'मालिक' तक पहुंचना दूर की कौड़ी होती है, और इनके frontline कर्मचारियों को Company culture के तहत प्रशिक्षण देकर मात्र target oriented बना दिया जाता है......मरीज़ों से सुन्दर आपसी रिश्ते (जो छोटे अस्पतालों की मूल भावना होते हैं) की जगह Profit अर्थात येनकेन प्रकारेण balance sheet में शुद्ध मुनाफे में वृद्धि ही इस Corporate Culture का मूल सिद्धांत है । और इसके लिए इनके कर्मचारी कभी कभार bargaining और Service only to the extent of money paid के 'व्यवसायिक' सिद्धांत का भी सहारा लेने से नहीं चूकते । यहां पर मरीज़ का साथी या सहायक कोई डॉक्टर हो या कोई पैरामेडिकल स्टाफ या फिर कोई 'स्थानीय दलपति', किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

 

ध्यान देने योग्य बात है कि सुपरस्पेशलिटी, उच्च तकनीक का उपयोग और 5 स्टार सुविधाओं के नाम पर इन Corporate अस्पतालों के छोटे-मोटे इलाज के रेट भी लाखों में होते हैं, जो मरीज़ों से हक़ से लिये जाते हैं, और वे 'अवाक' रहकर देते भी हैं। साथ ही जितनी भी बीमा योजनाएं हैं, उनमें से ये 5 स्टार कॉरपोरेट हॉस्पिटल्स केवल वे सी सुविधाएं उपलब्ध करवाते हैं, जिनके रेट्स अच्छे मिलते हों। बाकी की 'चने-मूंगफली' की रेट पर तो इलाज़ छोटे अस्पतालों को करने को मजबूर होना पड़ता है, जो बिना शिकायत करने के बाद भी समाज द्वारा रुसवा किये जाते हैं।

 

आने वाले समय मे मरीज़ों के ये 'अपने' छोटे अस्पताल शायद धीरे-धीरे लुप्त हो जाएंगे या फिर इनमें मजबूरन कुछ को अपना अस्तित्व बचाने के लिए Corporate Hospital का यह छद्म वेश अपना कर 'हीरो' से एक तथाकथित 'विलेन' बन जाना पड़ेगा। और जानते हैं इसका कारण क्या है......उक्त Corporate Hospitals के व्यवसायिक घरानों ने स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में अपनी मोनोपोली बनाने के लिए इन मरीज़ों के 'अपने' कहे जाने वाले छोटे अस्पतालों के अस्तित्व की 'समूल विनाश' की योजना बनाई है। और इसके लिए उन्होंने लॉबिंग और फंडिंग का सहारा लेकर इन छोटे अस्पतालों के लिए ऐसे सरकारी फरमानों और नियमों की पैदावार बड़ाई है जिससे आने वाले समय में इनके लिए survive कर पाना मुश्किल होगा.........सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं में इलाज़ के काफी कम दाम; अस्पतालों के बायोमेडिक्ल कचरे के निस्तारण के बढ़ते रेट; विभिन्न नियमों के तहत अस्पताल भवनों की बनावट में खासी बेवजह तब्दीली करने की बाध्यता; और कम दाम देकर उच्चतम गुणवत्ता की सेवाओं की डिमांड आदि से छोटे अस्पतालों की यह 'प्रजाति' संभवतः भविष्य में घुट-घुट कर दम तोड़ देगी और विलुप्त हो जाएगी...

...... फिर हर तरफ रह जाएंगे यही बड़े-बड़े मॉलनुमा Corporate Hospitals और उनकी मोनोपोली....... और मोनोपोली मतलब मनमानी.........और तब सरकार भी कुछ नहीं कर पायेगी इनकी लॉबी को नियंत्रित करने के लिये.............दिल्ली की हालात देख लीजिए।

 

अतः जनता, मीडिया और जन प्रतिनिधियों से निवेदन है...... कि छोटे अस्पतालों के अस्तित्व को बनाये रखने की मुहिम में साथ दें। इसी में मरीजों का दीर्घकालीन हित है.......क्यों कि यही वे अस्पताल हैं, जो मरीज़ों का उपचार 'दिल' से करते हैं, 'दिमाग' से नहीं। अतः आप से निवेदन है कि छोटे अस्पतालों के इस उपचार को बनाये रखने हेतु, अपने 'समर्थन का उपचार' इनको जरूर दें।

 

Support UPCHAR (The United Private Clinics & Hospitals Association of Rajasthan.)

UPCHAR...An initiative from Private Doctors of Rajasthan, aiming to 'save' Small Clinical establishments.

 

जय श्री विठ्ठल।।